परिचय
उत्तर प्रदेश विधान मण्डल का इतिहास
उत्तर प्रदेश विधान मण्डल का इतिहास
राज्य में विधायी संस्थाओं का विकास भारत में विधान मण्डल के इतिहास से सीधे जुड़ा हुआ हैा वर्ष 1861 तक समस्त विधान कार्य ब्रिटेन की संसद के हाथों में था।
इस राज्य में सर्वप्रथम 5 जनवरी, 1887 को 9 नामनिर्देशित सदस्यों के साथ लेजिस्लेटिव कौंसिल की स्थापना हुई जिसका नाम ‘नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज एण्ड अवध लेजिस्लेटिव कौंसिल’ था। कौंसिल की पहली बैठक 8 जनवरी, 1887 को इलाहाबाद के थार्नहिल मेमोरियल हाल में हुई थी। गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट 1935 के अनुसार सभी प्रदेशों और तत्कालीन राजाओं की रियासतों को मिलाकर भारत में गणतन्त्र की स्थापना और प्रदेशों को स्वायत्तता दिये जाने का प्रस्ताव था। लेजिस्लेटिव कौंसिल मार्च, 1937 तक एकल सदनीय विधान मण्डल के रूप में प्रदेश में कार्यरत थी। उपरोक्त अधिनियम का राज्यों से संबंधित भाग 1 अ्रप्रैल, 1937 को प्रभावी हुआ। इस प्रकार अंग्रेजों के शासन काल में ही देश के 5 और राज्यों सहित इस राज्य का विधान मण्डल भी एकल सदनीय से द्विसदनीय हो गया। ‘लेजिस्टलेटिव असेम्बली’ और ‘लेजिस्लेटिव कौंसिल’ नाम से दो सदन स्थापित हो गये। निचले सदन, लेजिस्लेटिव असेम्बली का गठन पूर्णत: निर्वाचित सदस्यों द्वारा तथा ऊपरी सदन, लेजिस्लेटिव कौंसिल का गठन निर्वाचित और नामनिर्देशित दोनों प्रकार के सदस्यों द्वारा किये जाने की व्यवस्था की गयी। इस बीच राज्य का नाम बदल कर ‘युनाइटेड प्रोविंसेज’ कर दिया गया।
स्वाधीनता से पूर्व विधान सभा की स्थिति
राज्यों को दी गयी स्वायत्तता, प्रदेश स्तर पर संसदीय प्रणाली की सरकारें स्थापित करने की दिशा में पहला कदम थी। गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट, 1935 में 228 निर्वाचित सदस्यों से ‘लेजिस्लेटिव असेम्बली’ के गठन का प्राविधान किया गया। भारतीय समाज में व्याप्त जाति, वर्ण व्यवस्था और अन्य दूसरे हितों को निर्वाचन प्रणाली के लिये आधार बनाया गया। असेम्बली का कार्यकाल 5 वर्षों का था लेकिन राज्य के गर्वनर को यह कार्यकाल पूरा होने से पहले किसी भी समय उसे विघटित करने का अधिकार था। असेम्बली ने अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष निर्वाचित किये।
नव गठित विधान सभाओं के लिये राज्यों में निर्वाचन कार्य 1935 का अधिनियम प्रभावी होने से पहले ही सम्पन्न करा लिये गये। यू0पी0 की लेजिस्लेटिव असेम्बली के लिये दिसम्बर, 1936 में चुनाव कराये गये। कांग्रेस पार्टी भी चुनाव में उतरी और यू0पी0 सहित देश के 9 राज्यों में उसे बहुमत मिला। पं0 गोविन्द बल्लभ पंत के नेत़त्व में जुलाई, 1937 में कांग्रेस का पहला मंत्रिमण्डल बना। 29 जुलाई, 1937 को असेम्बली (तत्कालीन नाम) की पहली बैठक हुर्इ। राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन और अब्दुल हकीम 31 जुलाई, 1937 को क्रमश: अध्यक्ष और उपाध्यक्ष निर्वाचित हुएा आचार्य नरेन्द्र देव, चौ0 चरण सिंह, गोविन्द बल्लभ पंत, पुरूषोत्तम दास टण्डन, लाल बहादुर शास्त्री, श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित, रफी अहमद किदवई और नवाबजादा लियाकत अली खाँ जैसी अनेक विभूतियां असेम्बली के लिये सदस्य निर्वाचित हुईं।
स्वाधीनता से पूर्व गठित यू0पी0 की पहली लेजिस्लेटिव असेम्बली का कार्यकाल अत्यन्त संक्षिप्त रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड जाने पर 3 सितम्बर, 1939 को गवर्नर जनरल ने केन्द्रीय अथवा प्रोदशिक विधान मण्डलों में जन प्रतिनिधियों को बिना विश्वास में लिये जर्मनी के विरूद्ध युद्धरत देशों में भारत का नाम भी घोषित कर दिया। इस ब्रिटिश नीति से सहमत न होने के कारण पंत मंत्रिमण्डल ने इस्तीफा दे दिया। मंत्रिमण्डल गठित करके सदन में बहुमत जुटा पाना अन्य किसी के वश की बात नहीं थी। इसलिये अंत में गवर्नर ने असेम्बली निलम्बित कर दी।
युद्ध के बाद, 1945 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी सत्ता में आयी और उसने भारतीय समस्याओं पर नये सिरे से विचार करने का निर्णय लिया। ब्रिटिश सरकार ने भारत के राजनीतिक नेताओं से राय लेकर देश में सामान्य निर्वाचन कराने का फैसला किया जो फरवरी और मार्च, 1946 में सम्पन्न हुए।
विधान मण्डल का निलम्बन गवर्नर के आदेश से 1 अप्रैल, 1946 को समाप्त हो गया। गवर्नर ने पं0 गोविन्द बल्लभ पंत को मंत्रिमण्डल गठित करने के लिए आमंत्रित किया। पंत जी ने आमन्त्रण स्वीकार किया, परिणामस्वरूप उनके नेत़त्व में मंत्रिमण्डल ने कार्यभार ग्रहण कर लिया।
नव निर्वाचित सदस्यों की इस असेम्बली की बैठक 25 अप्रैल, 1946 को हुई थी। राजर्षि पुरूषोत्तम दास 27 अप्रैल, 1946 को पुन: अध्यक्ष नर्वाचित हुए। श्री नफीसुल अहन को 15 अगस्त, 1946 को उपाध्यक्ष चुना गया। इस असेम्बली ने उत्तर प्रदेश में जमींदारी प्रथा समाप्त करने के लिये एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया और सरकार को इसके लिये समुचित योजना तैयार करने का निर्देश दिया।
इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने सम्पूर्ण स्वाधीनता के लिये भारत की मांग मान ली। केन्द्र में संविधान सभा गठित हुई और उसी के साथ अंतरिम सरकार बन गयी जिसमें प्रमुख राजनीतिक दलों के अधिक़ृत प्रतिनिधि शामिल हुए। इसके बाद ही ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को सत्ता सौंप देने का मन बना लिया। गवर्नर जनरल ने भारत के महत्वपूर्ण राजनीतिक नेताओं से परामर्श किया और उस पर ब्रिटिश सरकार की सहमति लेकर सत्तांतरण के लिये अपनी योजना घोषित कर दी। इसी योजना के तहत ब्रिटेन की संसद ने जुलाई में इण्डियन इंडिपेन्डेंस ऐक्ट बनाया और 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वाधीन हो गया। स्वाधीनता के बाद यू0पी0 लेजिस्लेटिव असेम्बली की बैठक पहली बार 3 नवम्बर, 1947 को हुई।
विधान सभा ने 25 फरवरी, 1948 को इलाहाबाद स्थित उच्च न्यायालय और अवध चीफ कोर्ट का विलय करने के लिये एक प्रस्ताव पारित किया। वर्ष 1949 में ऐतिहासिक महत्व के दो संसदीय कार्य हुए- जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार विधेयक, 1949 और यू0पी0 एग्रीकल्चरण टेनेन्टस (एक्वीजीशन ऑफ प्रिविलेजेज) बिल, 1949 जो क्रमश: वर्ष 1951 और दिसम्बर, 1949 में अधिनियम बन गये।
गणराज्य बनने के बाद विधान मण्डल
संविधान सभा का गठन 9 दिसम्बर, 1946 को हुआ था जिसे स्वाधीन भारत का संवधिान बनाने में लगभग 3 वर्ष लग गये। 26 जनवरी, 1950 को संविधान के प्रभावी होते ही भारत, एक सम्प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य हो गया। ब्रिटेन के राष्ट कुल देशों से उसने अपना संबंध यथावत् बनाये रखा।
उत्तर प्रदेश के वैकल्पिक विधान मण्डल का प्रथम सत्र नये संविधान के अंतर्गत 2 फरवरी, 1950 को आरम्भ हुआ। मा0 पुरूषोत्तम दास टण्डन को अध्यक्ष पद की शपथ दिलायी गयी। देवनागरी लिपि और हिन्दी को विधान सभा की अधिक़ृत भाषा के रूप में मान्यता मिली। उपाध्यक्ष श्री नफीसुल हसन को 21 दिसम्बर, 1950 को अध्यक्ष और श्री हरगोविन्द पंत को 4 जनवरी, 1951 को उपाध्यक्ष पद निर्वाचित किया गया।
स्वाधीन भारत की संविधान सम्मत विधान सभा
भारत के करोडों लोगों ने 1952 में वोट देने के अपने संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग करके अगले पांच वर्षों के लिये देश भर में प्रतिनिधियों का चुनाव किया। समूचे विश्व में वयस्क मताधिकार के आधार पर कराया गया यह सबसे बडा और पहला सामान्य निर्वाचन था। नये संविधान के प्राविधान के अनुसार उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिये सदस्यों की संख्या एक नाम निर्देशित एग्लों इण्डियन को शामिल करते हुए 431 निर्धारित की गयी जिसे बाद में संशोधनोपरांत 426 कर दिया गया। विधान सभा का कार्यकाल, अगर वह पहले ही विघटित न हो जाये, पांच वर्ष का है। अभी तक वह सोलह बार गठित हो चुकी है।
प्रत्येक सामान्य निर्वाचन के बाद विधान सभा के प्रथम सत्र के आरम्भ में और प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरम्भ में प्रदेश के राज्यपाल दानों सदनों के समवेत सदस्यों को संबोधित करते हैं तथा सदस्यों को सत्राहवान के कारणों से अवगत कराते हैं। राजयपाल समय-समय पर दोनों सदनों को अधिवेशन के लिये आहूत करते हैं।
सदन के सदस्य आपस में ही विधान सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का निर्वाचन करते हैं। जब तक उनकी सदस्यता समाप्त न हो जायेगा या उन्हें विधान सभा के तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पद से हटा न दिया जायेगा या वे स्वयं पद त्याग न कर दें, उनका कार्यकाल बना रहता है। जहां तक अध्यक्ष का प्रश्न है, वे विधान सभा विघटित हाने के बाद भी नयी विधान सभा के प्रथम उपवेशन के पहले तक पदासीन रहते हैं।
विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी होने के नाते कार्यपालिका पर विधान मण्उल का प्रभावी नियंत्रण रहता है। हमारी तरह की लोकतांत्रिक प्रणाली में विधान मण्डल की समितियों की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण होती है। यह समितियां, प्रदेश में विधान मण्डल के उदभव के समय से ही कार्यरत हैं। सबसे पहली समिति 19 फरवरी, 1887 को जनरल क्लाजेज ऐक्ट की समीक्षा करने के लिये बनायी गयी थी। जब विधान मण्डल द्विसदनीय हो गया तथा वित्तीय अधिकारी विधान परिषद से लेकर विधान सभा को दे दिये गये तो दोनों वित्तीय समितियां:स्थायी वित्त् समिति और लोक लेखा समिति भी विधान सभा के अधीन हो गयीं। विधान सभा के प्रक्रिया और नियमों में सदन की स्थायी, अस्थायी और संयुक्त समितियां गठित किये जाने का प्राविधान है। वर्तमान में सदन की अनेक स्थायी समितियां है।
सत्राहवान के बाद विधान सभा की बैठकें, प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित विधान भवन के सभा मण्डप में होती हैं। इस सभा मण्डप की अपनी विशेष गरिमा है। अष्टभुजाकार मण्डप की छत गुम्बद के रूप में है जिसकी भीतरी कोर्निस में निश्चित दूरी रखते हुए पंख फैलाये नृत्य करते मोर के चित्र उकेरे गये हैं।
दोनों सदनों के अलग-अलग सचिवालय हैं जिनके विभागीय अध्यक्ष प्रमुख सचिव होते हैं। यह सचिवालय सरकार के नियंत्रण से पृथक और स्वायत्तशासी हैं। दोनों सदनों के सदस्यों के उपयोग के लिये शोध, संदर्भ एवं प्रलेखन सेवा सहित एक सुसज्जित और सम्पन्न पुस्तकालय है जिसकी गणना भारत के राज्य विधान मण्डलों में सबसे समृद्ध और सबसे बडे पुस्तकालय के रूप में की जाती है।
विधान भवन का इतिहास
विधान भवन का संक्षिप्त इतिहास
काउन्सिंल हाउस (विधान भवन) के भव्य भवन की नींव १५ दिसम्बर, १९२२ को तत्कालीन गवर्नर सर स्पेंसर हरकोर्ट बटलर द्वारा रखी गयी थी तथा २१ फरवरी, १९२८ को इसका उद्घाटन हुआ था। इस भवन का निर्माण कलकत्ता की कम्पनी मेसर्स मार्टिन एण्ड कम्पनी द्वारा किया गया था। इसके मुख्य आर्कीटेक्ट सर स्विनोन जैकब तथा श्री हीरा सिंह थे। उस समय इसके निर्माण हेतु २१ लाख रूपया स्वीकार हुआ था। इस भवन की स्थापत्य यूरोपियन और अवधी निर्माण की मिश्रित शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह भवन अर्धचक्राकार रूप में मुख्य रूप से दो मंजिलों में मिर्जापुर (चुनार) के भूरे रंग के बलुआ पत्थरों के ब्लाक से निर्मित है। अर्धचक्र के बीच में 'गोथिक' शैली का गुम्बद है जिसके शीर्ष पर एक आकर्षक छतरी है। इस गुम्बद के चारों ओर सजावट के रूप में ‘रोमन’ शैली में बड़े आकार की पत्थर की मूर्तियां बनी हुयी हैं। भवन के बाहरी भाग के पोर्टिको के ऊपर संगमरमर से प्रदेश का राज्य चिन्ह बना हुआ है।
भवन के अन्दर अनेक हाल एवं दीर्घायें हैं जो मुख्यत: आगरा और जयपुर के संगमरमर से बनी है। ऊपरी मंजिल तक जाने के लिए मुख्य द्वार के दाहिने एवं बायी ओर अत्यन्त सुन्दर शैली में संगमरमर निर्मित गोलाकार सीढ़िया बनी हैं। इन सीढ़ियों की दीवारों पर विशिष्ट प्रकार की पेन्टिंग बाद में करायी गयी है।
गुम्बद के नीचे अष्टकोणीय चेम्बर अर्थात मुख्य हाल बना है। इसकी वास्तुकला अत्यन्त ही आकर्षक पच्चीकारी शैली में है। हाल की गुम्बदीय आकार की छत में जालियां तथा नृत्य करते हुए आठ मोरों की अत्यन्त सुन्दर आकृतियां बनी है। इसी चेम्बर में विधान सभा की बैठकें होती है। माननीय सदस्यों के लिए चेम्बर के दोनों तरफ एक-एक बड़ी लाबी है।
विधान परिषद् की बैठकों एवं कार्यालय कक्षों के लिए एक अलग चेम्बर का प्रस्ताव जुलाई, १९३५ में हुआ। जिसके निर्माण का कार्य मैसर्स फोर्ड एण्ड मैक्डानल्ड को सौंपा गया। मुख्य वास्तुविद ए० एम० मार्टीमंर द्वारा एक्सटेंशन भवन का निर्माण कराया गया जो लोक निर्माण विभाग की देखरेख में नवम्बर, १९३७ में पूर्ण हुआ। विधान परिषद् का यह भवन मुख्य भवन के दोनों ओर बनाये गये कमरों व बरामदों से जुड़ा हुआ है।